Sunday, February 2, 2014

बदल गए इरादे

हुए थे जब रुखसत अपने घर से ,,,
करके खुद को जब दस्ते कुदरत
घने अँधेरे में …
सन्नाटे की मर्यादा को चीरते हुए ,,
करने खुद को ख़ुदकुशी के हवाले ..
थाम ली हमारी बाह …
रोक लिया हमें तारीकियों में रहने ….
उन वाले जुगनुओ ने ,,,
पूछ ली हमारी आरजू …
जब छेड़ा हमने अपना जिक्र ,,,
तो देखा ,,,,
वो हमारे तलबगार निकले ,,,,
थोड़ा आगे बढ़े ,,,,
देखते हुए नजारा
जंगल , दरिया, अँधेरी रातो का,
देखते हुए आबादी परियो की,,,
देखा आगे चम् चमाती चांदनी थी ….
पक्की पक्की सड़के थी ,,,
सडको पर कच्ची लाशे थी….
आगे जाकर देखा डेल्ही जैसा शहर निकला ….
पीछे मुड़ के जब हमने मुर्दो से पूछा ,,,
वो हमारे जाकिर निकले ,,,,,,,
हर दोस्त का एहसान मेरे सर पे रहा ,,,
हर मुश्किल का पैगाम मेरे सर पे रहा ,,,
सो बार शुक्रिया मेरे यारो का ,,,,
ना लगा किसी गद्दारी का दाग मेरे सर पे ,,,,,
बस इसी का एक शुक्रिया मेरे रजिक का
देख के अजीब नज़ारे ,,,
बदल गए इरादे ,,,,,
फिर लेकर एक नै आरजू ,,,,,
लोटा सुबह घर को ,,,
छोड़ के शहर के महल ,,,,
बेठ के गाव के भीगे घर में ,,,,
पूछा इस टूटे दिल से ,,,,
निकली एक बुलंद आवाज़ ….
होसला मत हार मुसाफिर ,,,
तब होस आया,,,,,
तो ,,,,,,,पता चला ….
हम ही तो हमारे मददगार निकले
               आर . बी . आंजना

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