Saturday, January 4, 2014

कबीर का जीवन परिचय | Life of Kabir |



कबीर हिंदी साहित्य के महिमामण्डित व्यक्तित्व हैं। कबीर के जन्म के संबंध में अनेक किंवदन्तियाँ हैं। कुछ लोगों के अनुसार वे रामानन्द स्वामी के आशीर्वाद से काशी की एक विधवा ब्राह्मणी के गर्भ से पैदा हुए थे, जिसको भूल से रामानंद जी ने पुत्रवती होने का आशीर्वाद दे दिया था। ब्राह्मणी उस नवजात शिशु को लहरतारा ताल के पास फेंक आयी।

कबीर के माता- पिता के विषय में एक राय निश्चित नहीं है कि कबीर "नीमा' और "नीरु' की वास्तविक संतान थे या नीमा और नीरु ने केवल इनका पालन- पोषण ही किया था। कहा जाता है कि नीरु जुलाहे को यह बच्चा लहरतारा ताल पर पड़ा पाया, जिसे वह अपने घर ले आया और उसका पालन-पोषण किया। बाद में यही बालक कबीर कहलाया।

कबीर ने स्वयं को जुलाहे के रुप में प्रस्तुत किया है -

"जाति जुलाहा नाम कबीरा
बनि बनि फिरो उदासी।'

कबीर पन्थियों की मान्यता है कि कबीर की उत्पत्ति काशी में लहरतारा तालाब में उत्पन्न कमल के मनोहर पुष्प के ऊपर बालक के रूप में हुई। ऐसा भी कहा जाता है कि कबीर जन्म से मुसलमान थे और युवावस्था में स्वामी रामानन्द के प्रभाव से उन्हें हिंदू धर्म का ज्ञान हुआ। एक दिन कबीर पञ्चगंगा घाट की सीढ़ियों पर गिर पड़े थे, रामानन्द ज उसी समय गंगास्नान करने के लिये सीढ़ियाँ उतर रहे थे कि उनका पैर कबीर के शरीर पर पड़ गया। उनके मुख से तत्काल `राम-राम' शब्द निकल पड़ा। उसी राम को कबीर ने दीक्षा-मन्त्र मान लिया और रामानन्द जी को अपना गुरु स्वीकार कर लिया। कबीर के ही शब्दों में- `हम कासी में प्रकट भये हैं, रामानन्द चेताये'। अन्य जनश्रुतियों से ज्ञात होता है कि कबीर ने हिंदु-मुसलमान का भेद मिटा कर हिंदू-भक्तों तथा मुसलमान फक़ीरों का सत्संग किया और दोनों की अच्छी बातों को आत्मसात कर लिया।

जनश्रुति के अनुसार कबीर के एक पुत्र कमल तथा पुत्री कमाली थी। इतने लोगों की परवरिश करने के लिये उन्हें अपने करघे पर काफी काम करना पड़ता था। साधु संतों का तो घर में जमावड़ा रहता ही था।

कबीर को कबीर पंथ में, बाल- ब्रह्मचारी और विराणी माना जाता है। इस पंथ के अनुसार कामात्य उसका शिष्य था और कमाली तथा लोई उनकी शिष्या। लोई शब्द का प्रयोग कबीर ने एक जगह कंबल के रुप में भी किया है। वस्तुतः कबीर की पत्नी और संतान दोनों थे। एक जगह लोई को पुकार कर कबीर कहते हैं :-

"कहत कबीर सुनहु रे लोई।
हरि बिन राखन हार न कोई।।'

कबीर पढ़े-लिखे नहीं थे-

`मसि कागद छूवो नहीं, कलम गही नहिं हाथ।'

उन्होंने स्वयं ग्रंथ नहीं लिखे, मुँह से भाखे और उनके शिष्यों ने उसे लिख लिया। आप के समस्त विचारों में रामनाम की महिमा प्रतिध्वनित होती है। वे एक ही ईश्वर को मानते थे और कर्मकाण्ड के घोर विरोधी थे। अवतार, मूर्त्ति, रोज़ा, ईद, मसजिद, मंदिर आदि को वे नहीं मानते थे।



कबीर के नाम से मिले ग्रंथों की संख्या भिन्न-भिन्न लेखों के अनुसार भिन्न-भिन्न है। एच.एच. विल्सन के अनुसार कबीर के नाम पर आठ ग्रंथ हैं। विशप जी.एच. वेस्टकॉट ने कबीर के ८४ ग्रंथों की सूची प्रस्तुत की तो रामदास गौड ने `हिंदुत्व' में ७१ पुस्तकें गिनायी हैं।

कबीर की वाणी का संग्रह `बीजक' के नाम से प्रसिद्ध है। इसके तीन भाग हैं- रमैनी, सबद और सारवी यह पंजाबी, राजस्थानी, खड़ी बोली, अवधी, पूरबी, व्रजभाषा आदि कई भाषाओं की खिचड़ी है।

कबीर परमात्मा को मित्र, माता, पिता और पति के रूप में देखते हैं। यही तो मनुष्य के सर्वाधिक निकट रहते हैं। वे कभी कहते हैं-

`हरिमोर पिउ, मैं राम की बहुरिया' तो कभी कहते हैं, `हरि जननी मैं बालक तोरा'

उस समय हिंदु जनता पर मुस्लिम आतंक का कहर छाया हुआ था। कबीर ने अपने पंथ को इस ढंग से सुनियोजित किया जिससे मुस्लिम मत की ओर झुकी हुई जनता सहज ही इनकी अनुयायी हो गयी। उन्होंने अपनी भाषा सरल और सुबोध रखी ताकि वह आम आदमी तक पहुँच सके। इससे दोनों सम्प्रदायों के परस्पर मिलन में सुविधा हुई। इनके पंथ मुसलमान-संस्कृति और गोभक्षण के विरोधी थे।

कबीर को शांतिमय जीवन प्रिय था और वे अहिंसा, सत्य, सदाचार आदि गुणों के प्रशंसक थे। अपनी सरलता, साधु स्वभाव तथा संत प्रवृत्ति के कारण आज विदेशों में भी उनका समादर हो रहा है।

कबीर का पूरा जीवन काशी में ही गुजरा, लेकिन वह मरने के समय मगहर चले गए थे। वह न चाहकर भी, मगहर गए थे। वृद्धावस्था में यश और कीर्त्ति की मार ने उन्हें बहुत कष्ट दिया। उसी हालत में उन्होंने बनारस छोड़ा और आत्मनिरीक्षण तथा आत्मपरीक्षण करने के लिये देश के विभिन्न भागों की यात्राएँ कीं। कबीर मगहर जाकर दु:खी थे:

"अबकहु राम कवन गति मोरी।
तजीले बनारस मति भई मोरी।।''

कहा जाता है कि कबीर के शत्रुओं ने उनको मगहर जाने के लिए मजबूर किया था। वे चाहते थे कि कबीर की मुक्ति न हो पाए, परंतु कबीर तो काशी मरन से नहीं, राम की भक्ति से मुक्ति पाना चाहते थे:

"जौ काशी तन तजै कबीरा
तो रामै कौन निहोटा।''

अपने यात्रा क्रम में ही वे कालिंजर जिले के पिथौराबाद शहर में पहुँचे। वहाँ रामकृष्ण का छोटा सा मन्दिर था। वहाँ के संत भगवान गोस्वामी जिज्ञासु साधक थे किंतु उनके तर्कों का अभी तक पूरी तरह समाधान नहीं हुआ था। संत कबीर से उनका विचार-विनिमय हुआ। कबीर की एक साखी ने उन के मन पर गहरा असर किया-

`बन ते भागा बिहरे पड़ा, करहा अपनी बान।
करहा बेदन कासों कहे, को करहा को जान।।'

वन से भाग कर बहेलिये के द्वारा खोये हुए गड्ढे में गिरा हुआ हाथी अपनी व्यथा किस से कहे ?

सारांश यह कि धर्म की जिज्ञासा सें प्रेरित हो कर भगवान गोसाई अपना घर छोड़ कर बाहर तो निकल आये और हरिव्यासी सम्प्रदाय के गड्ढे में गिर कर अकेले निर्वासित हो कर ऐसी स्थिति में पड़ चुके हैं।

कबीर आडम्बरों के विरोधी थे। मूर्त्ति पूजा को लक्ष्य करती उनकी एक साखी है -

पाहन पूजे हरि मिलैं, तो मैं पूजौंपहार।
था ते तो चाकी भली, जासे पीसी खाय संसार।।

११९ वर्ष की अवस्था में मगहर में कबीर का देहांत हो गया। कबीरदास जी का व्यक्तित्व संत कवियों में अद्वितीय है। हिन्दी साहित्य के १२०० वर्षों के इतिहास में गोस्वामी तुलसीदास जी के अतिरिक्त इतना प्रतिभाशाली व्यक्तित्व किसी कवि का नहीं है।


Friday, January 3, 2014

प्रधानमंत्री का ब्यान

पत्रकार कुछ पूछता हे ,,,जवाब क्या देते हे प्रधानमंत्री ,,,
ये हमारे वतन के सबसे बड़े अर्थशाष्त्री हे ,,,
मोदी का पी . एम . बनना विनाशकारी होगा --प्रधानमंत्री

"मदर टेरेसा--जीवन परिचय"

मदर टेरेसा

"Peace begins with a smile - Mother Teresa"

जीवन परिचय

मदर टेरेसा का जन्म 26 अगस्त, 1910 को 'यूगोस्लाविया' में हुआ एक कृषक दंपत्ति के घर इस महान विभूति का जन्म हुआ था। उनका वास्तविक नाम है- एग्नेस गोनक्शा बोजाक्शिहउ। मदर टेरेसा के पिता का नाम निकोला बोयाजू था तथा वह एक साधारण व्यवसायी थे। ८ साल की उम्र में उन्होंने अपने पिता को खो दिया। उसके पश्चात,उसे अपनी माँ ने रोमन कैथोलिक के रूप में पालाग्राफ क्लुकास की आत्मकथा के अनुसार उसके प्रारंभिक जीवन में अगनेस मिशनरियों के जीवन और उनकी सेवा की कहानियो से बहुत प्रभावित था और १२ साल की उम्र तक वह निर्णय कर चुकी थी की वह स्वयं को एक धार्मिक जीवन के प्रति समर्पित कर देगी।एगनेस १८ साल की उम्र में ही मिस्टरस आफ लॉरेटो मिशन के साथ जुड़ गयी । एक रोमन कैथोलिक संगठन की वे सक्रिय सदस्य थीं और 12 वर्ष की अल्पायु में ही उनके हृदय में विराट करुणा का बीज अंकुरित हो उठा था।




भारत आगमन


एगनेस ने पहले अंग्रेजी भाषा का अध्ययन किया, फिर १९२१ में दार्जिलिंग भारत आयीं। नन के रूप में २४-५-१९३१ को शपथ लेने के बाद, अपने को नाम टेरेसा कहलाना पसन्द किया और कलकत्ता में आकर लॉरेटो कान्वेन्ट में पढ़ाने लगीं।

पढ़ाते समय उन्हें लगने लगा कि ईश्वर ने उन्हें गरीबों के बीच काम करने का बनाया है। 1925 में यूगोस्लाविया के ईसाई मिशनरियों का एक दल सेवाकार्य हेतु भारत आया और यहाँ की निर्धनता तथा कष्टों के बारे में एक पत्र, सहायतार्थ, अपने देश भेजा। इस पत्र को पढ़कर एग्नेस भारत में सेवाकार्य को आतुर हो उठीं और 19 वर्ष की आयु में भारत आ गईं।


मिशनरीज ऑफ चेरिटी


१० सितम्बर १९४६ को टेरेसा ने जो अनुभव किया उसे बाद में " कॉल के भीतर कॉल "के रूप में तब वर्णन किया जब वह दार्जिलिंग के लोरेटो कान्वेंट में वार्षिक समारोह की यात्रा पर थी "मै कॉन्वेंट को गरीबो के बीच रहकर सहायता करने के लिए छोड़ने वाली थी। यह एक आदेश था "विफलता इस विश्वास को तोड़ने के लिए रहता "
उसने १९४८ में गरीबो के साथ अपना मिशनरी कार्य जरी रखा , अपनी पारंपरिक लोरेटोकी आदतों को बदलते हुए एक सरल सफेद सूती chira नीले रंग के बॉर्डर के साथ , भारतीय नागरिकता अपनाया और झुग्गी बस्तियों में डेरा जमाया
प्रारंभ में उन्होंने मोतीझील में एक स्कूल प्रारम्भ किया , जल्द ही उन्होंने बेसहारा और भूख से मर रहे लोगो की आवश्यकताओं की ओर प्रवृत हुई उनके प्रयासों ने भारत्या अधिकारीयों का ध्यान आकृष्ट किया जिनमें प्रधानमंत्री शामिल थे ,जिन्होंने उनकी सराहना की.
टेरेसा ने अपनी डायरी में लिखा की उनका पहला साल कठिनाइयों से भरपूर था उनके पास कोई आमदनी नही थी और भोजनऔर आपूर्ति के लिए भिक्षावृत्ति भी किया इन शुरूआती महीनो में टेरेसा ने संदेह , अकेलापन , और आरामदेह जीवन में वापस जाने की लालसा को महसूस किया , उन्होंने अपनी डायरी में लिखा
टेरेसा ने ७ अक्तूबर १९५० को बिशप के प्रदेश मण्डली जो मिशनरीज ऑफ चेरिटी बना.वेटिकेन की आज्ञा प्राप्त कर प्रारम्भ किया इसका उद्देश्य उनके अपने शब्दों में " भूखे , नंगा , बेघर , लंगड़ा , अंधा , पुरे समाज से उपेक्षित, प्रेमहीन , जो लोग समाज के लिए बोझ बन गए हैं और सभी के द्वारा दुत्कारेगए हैं की देखभाल करना है यह कोलकाता में १३ सदस्यों के साथप्रारम्भ हुआ : आज यहाँ ४००० से अधिक नन अनाथालयों , एड्स आश्रम और दुनिया भर में दान केन्द्रों , और शरणार्थियों की , अन्धे , विकलांग , वृद्ध , शराबियों , गरीबों और बेघर , और बाढ़ , महामारी , और अकाल पीड़ितों के देखभाल के लिए कार्य कर रही हैं.
१९५२ में मदर टेरेसा ने कोलकाता शहर उपलब्ध कराये गए जगह में अपना पहला घर खोला भारतीय अधिकारियों की सहायता से उन्होंने एक उपेक्षित हिंदू मन्दिर को मरणशील के लिए घर कालीघाट में परिवर्तित किया ,गरीबों के लिए एकमुफ्त आश्रम इसने इसका नाम कालीघाट रखा , शुद्ध हृदय का घर ( निर्मल हृदय )जो घर लाये गए उन्हें चिकित्सा सुविधा दिया गया और उन्हें सम्मान के साथ मरने का अवसर दिया गया , उनके रीती रिवाज़ के साथ , मुसलमानों ने कुरान पढ़ा , हिंदू गंगा से पानी प्राप्त किए और कैथोलिक ने अन्तिम संस्कार किए.उन्होंने कहा " एक सुंदर मृत्यु , जो लोग जानवरोंकी तरह रहते थे और स्वर्गदूतों जैसे मरना चाहते थे - प्रेम चाहते थे
मदर टेरेसा जल्दी ही एक घर कुष्ठ से पीड़ित लोगों के लिए खोला , कुष्ठ रोग के नाम से जाना और आश्रम का नाम शांति नगर ( शांति की शहर ) मिशनरीज ऑफ चेरिटी ने कई कुष्ठ रोग क्लीनिक की स्थापना पूरे कलकत्ता में दवा उपलब्ध कराने , पट्टियाँ और खाद्य पदार्थ प्रदान करने के लिए की
मिशनरीज ऑफ चेरिटी ने ढेरो संख्या में बच्चों को को अपनाया , मदर टेरेसाने उनके लिए घर बनाने के लिए जरूरत महसूस कियाउन्होंने १९५५ में निर्मला शिशु भवन खोला, शुद्ध हृदय के बच्चे का घर ,बेघर अनाथों के लिएयुवाओं के लिए स्वर्ग.
व्यवस्था ने शीघ्र ही रंगरूटों धर्मार्थ दान दोनों को आकर्षितकरना शुरू कियाऔर १९६० तक पूरे घर भारत में अनाथालयों, और कोढ़ी घरो के आश्रम की स्थापना की मदर टेरेसा के व्यवस्था का विस्तार पूरे विश्व में हैंभारत से बाहर इसका पहला घर १९५५ में पाँच बहनों के साथ वेनेजुएला में खोला उसके बाद रोम, तंजानिया, और ऑस्ट्रिया ने १९६८ में खोला , १९७० के दौरान एशिया, अफ्रीका, यूरोप, और संयुक्त राज्य अमेरिका के दर्जनों देशों में घर खोले और नीव डाली उनका दर्शन और कार्यान्वयन ने कुछ आलोचना का सामना किया मदर टेरेसा के आलोचकों को उनके ख़िलाफ़ कम सबूत पाने पर दाऊद स्कॉट ने लिखा की मदर टेरेसा ने खुद को सीमित रखने के बजाए लोगों को जीवित गरीबी से निपटनेमें रखा है ।


पीड़ितपर उनके विचार पर भी आलोचना की गई :
अल्बेर्ता रिपोर्ट (Alberta Report) के एक आलेख के अनुसार उन्होंने यह महसूस किया की पीडा लोगो को यीशु के करीबलाएगी.लम्बी बीमारी से ग्रस्त रोगियों की मरणशील गृह में की जा रही सेवा की भी मेडिकल प्रेस में आलोचना की गई , खासकर लांसेट (The Lancet) और ब्रिटिश मेडिकल जर्नल (British Medical Journal) में , जिसने इसका दुबारा प्रयोगhypodermic नीडल्स (hypodermic needles), गरीबों के जीवन स्तर सहित सभी रोगियों के लिए ठंडे स्नान और और विरोधी भौतिकवादी दृष्टिकोण के लिए किया जो व्यवस्थित निदान के निवारण के लिए है

IMAGE OF ABRAHAM LINCON'S Letter to his son's teacher


Abraham lincon's letter to his son's Teacher

Respected Teacher,

My son will have to learn I know that all men are not just, all men are not true. But teach him also that for ever scoundrel there is a hero; that for every selfish politician, there is a dedicated leader. Teach him that for every enemy there is a friend.

It will take time, I know; but teach him, if you can, that a dollar earned is far more valuable than five found.

Teach him to learn to lose and also to enjoy winning.

Steer him away from envy, if you can.

Teach him the secret of quite laughter. Let him learn early that the bullies are the easiest to tick.

Teach him, if you can, the wonder of books.. but also give him quiet time to ponder over the eternal mystery of birds in the sky, bees in the sun, and flowers on a green hill –side.

In school teach him it is far more honourable to fail than to cheat.

Teach him to have faith in his own ideas, even if every one tells him they are wrong.

Teach him to be gentle with gentle people and tough with the tough.

Try to give my son the strength not to follow the crowd when every one is getting on the bandwagon.

Teach him to listen to all men but teach him also to filter all he hears on a screen of truth and take only the good that comes through.

Teach him, if you can, how to laugh when he is sad. Teach him there is no shame in tears. Teach him to scoff at cynics and to beware of too much sweetness.

Teach him to sell his brawn and brain to the highest bidders; but never to put a price tag on his heart and soul.

Teach him to close his ears to a howling mob… and to stand and fight if he thinks he’s right.

Treat him gently; but do not cuddle him because only the test of fire makes fine steel.

Let him have the courage to be impatient, let him have the patience to be brave. Teach him always to have sublime faith in himself because then he will always have sublime faith in mankind.

This is a big order; but see what you can do. He is such a fine little fellow, my son.


Abraham Lincoln.

Thursday, January 2, 2014

"हम पर क्या गुजरती है"

बेठे रहे हम भीड़ वाले रास्ते  पर ,,,,,
यह  सोच के ि क,,,,,
सफलता शायद  यही से  गुजरती है  !
देखते रहे हम चेहरे ,,,,,
चलने वाले हर राही के ,,,,,,,,
यह सोच  कर  ि क ,,,,,,
शहर की सारी भीड़ तो,,,,
आखिर  यही से गुजरती है  !
बनाती रही जनता तमाशा हमारा,,,,,
यह सोच कर   ि क   ,,,,
हम पर क्या गुजरती है !
होश जब आया हमें ,,,,
देखा हम अकेले बेठे  थे ,,,,,
पहुँच चुके थे सब अपनी मंजील  को,,,,,,,
खोके अपना सब कुछ ,,,,,
जिंदगी के अंतिम मुकाम पर बेठे ,,,,,,
बस,,,,,,,,,,,,,,
हम ही जानते है   ि क,,,,,,
अब हम पर क्या गुजरती है !
अब हम पर क्या गुजरती है ! 

                  आर . बी . आँजना 

Wednesday, January 1, 2014

"जीने का अंदाज"

जिंदगी जीने का भी कोई मकसद होता है !
वो भी कोई खास है ,,,,,,,
             जिन्हे खुद पर विश्वास होता है !
अवसरों की  कमी नहीं हे ,,,,,दुनिया में
निकल पड़ते हे   ,,,,,,,,,,,
सफलता  की राह पर  वो ,,,,,,,,,,,
बांध के होसला अपना ,,,,,,,
बस ,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,
         जिनका अलग  अंदाज होता है !!
                 आर . बी . आंजना 

रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने का सटीक रामबाण

  जो सोचा नही था , वो समय आज गया । ऐसा समय आया कि लोगो को सोचने पर मजबूर होना पड़ा कि उस समय क्या किया जाए । आज की लोगो की जीवनशैली की वजह से...